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आयी थी मैं
उतर कर आसमाँ से
किया था बसेरा
एक देह में
बनी थी जो एक घर मेरा
समझना था मुझे खुद को
पड़ गया था
मेरे और तेरे का
अजीब घेरा.....
जुड़े थे रिश्ते नाते कई
घर के द्वार और दीवारों से
दे दिए थे नाम उपनाम कई
मुझे भी सबने
भांति भांति के व्यवहारों से...
निभा रही थी जिम्मेदारियां
हर नाम लक्षण के अनुरूप
भूल बैठी इस जद्दोजहद में
हा ! मैं खुद अपना ही स्वरूप....
आने लगे थे मेहमाँ अनचाहे
हो कर कभी अहम
तो कभी ईर्ष्या और विद्वेष
आ ठहरी थी हीनभावना
धरा था कुंठाओं ने वेश.....
जो होना था
अपना घर मेरा
बन गया ज्यूँ
हो कोई खुली सराय
होने थे जो मेहमान
कुछ दिन के
दिया वक़्त ने
उनको ही मालिक बनाय.....
उठाने को नखरे
मेहमानों के
उलझ गयी थी
उफ्फ मेरी तौबा
धीमी सी आवाज़ अपनी का
सुनने का
ना मिला था कोई मौका...
कर डाले थे
इक दिन बन्द मैंने
घर के दरवाज़े और खिड़कियां
शांत गहन अंधकार में
पाई थी मैंने
स्वयं की नाना झलकियां......
कर सकूँ विदा
अनचाहे अतिथियों को
प्रयास यही अब मेरा है
अभीष्ट है मिलना स्वयं से
जब तक इस घर मेरा डेरा है.....
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (01 -06-2019) को "तम्बाकू दो छोड़" (चर्चा अंक- 3353) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
शुभकामनायें
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