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उकेर दी हैं
उस निपुण ने
लकीरें हथेलियों पर मेरी ,
लिख दिए है
खाते कई
देना पावना के
मिलन बिछोह के
खोए पाए के ,
जाने कितनी सदियों से
चुका रही हूं कर्ज़
कुछ उतरते है
कुछ नए चढ़ जाते हैं ....
छुपा देता है
हर जन्म में
बड़ी ही निपुणता से
तुम्हें इन लकीरों में,
दिखते नहीं
फिर भी
तुम्हारे होने का एहसास
करता है पूर्ण
अस्तित्व को मेरे ,
झलकता है
यह अनदेखा
अनजाना सा
'होना'
मेरे होने में ....
समझ जाती हूँ मैं
शाश्वत है
मिलन अपना
होते हुए मुक्त
ऋण बंधनों से.....
वाह ! बहुत सुंदर
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