शनिवार, 25 अगस्त 2012

कर सकूँ सहज मैं क्षमा स्वयं को...


# # # #

पूर्व करने के
क्षमा अन्य को
कर सकूँ सहज मैं
क्षमा स्वयं को ...

ग्लानि में मैं
डूब ना जाऊँ
देखूं सजग
दोष को अपने
सुधार करूँ
त्रुटियों का जड़ से
खों ना दूँ मैं
होश को अपने ..

ना पालूँ
वैमनस्य को मन में
भूला सकूँ
अप्रिय कृत्यों को
पश्चाताप में
तप कर निकलूं
करुणा भाव
निज हृदय सक्रिय हो ...

ना समझूँ श्रेष्ठ
औरों से खुद को
हीन भाव
घर ना कर पाए
सहज स्वीकार करूँ
मैं निज को
फल 'अहम् ' पके
पक कर झर जाए ...

शब्दों में
की गयी क्षमा
बस कांटे जीवन में
बोती है,
निर्मल करती
क्षमाशीलता
सच्चे दिल में
जब होती है

हर प्राणी से
मैत्री मेरी ,
मेरी भूलें
क्षमित हो
सब से ,
संग अस्तित्व
एक तारतम्य हो,
क्षमावान हो सकूँ
हृदय से...

बर्फ....(एक नैनो )

अब्र-ए-अना ने
बरसाई थी
इक आग सी
हरदम ,
मिली है वो ही
जमी जमी
बर्फ जैसी
अपने रिश्तों पर
अल सुबह ...

अब्र-ए-अना- अहम् का बादल

चंद घड़ियों के पड़ाव .....


# # # #
होती है मुश्किल
मान लेते हैं
जब हम
शाश्वत
मोह -माया
और
ऐन्द्रिक सुखों को,
बन जाते हैं वे
बंधन
नागफांस से,
बीत जाता है
पूरा जीवन
ढ़ोने
निबाहने
और
बरबस जीने में
उनको ...


हो कर चेतन
क्यों ना जिये हम
जग को
पूरे होशो हवाश के संग,
आत्मसात करके
इस सच को कि
कुछ भी नहीं
चिरस्थायी यहाँ,
देखो ना
खिलता है फूल
मुरझाता है
और
जाता है झर भी,
नहीं करते ना
हम विलाप
उसकी मौत पर
करते हैं
यद्यपि प्रेम
फूल के
सौन्दर्य और सौरभ से
देता है जो
अनिर्वचनीय
प्रसन्नता हम को...


किया था
दमन
बुद्ध ने भी
घोर तपस्या कर
अन्न जल छोड़ कर
किन्तु
स्वीकारा था
उन्होंने भी
सुजाता की खीर को
हुआ था उजागर
सत्य कि
होने देहातीत
देह का
अनुपालन भी है
अनिवार्य...


नहीं है
मार्ग धर्म का
पलायन
जग से ,
कर देना त्याग
सभी खुशियों का
और
जीते रहना
एक नीरस
रूखा सा जीवन,
हो कर सजग
जीयें समग्र
जाने और मानें
हम
अस्थायी है यहाँ
सब कुछ....


नाव है मात्र
यह देह
यह ध्यान
यह साधना
यह धर्म
उस पार जाने हेतु,
जाकर उस पार
लादे फिरेंगे हम
उनको
यदि कंधे पर अपने
होगा वह
एक मूढ़ कृत्य हमारा...


खिलाता है
सौन्दर्य अस्तित्व का ,
हमारे आंतरिक सौन्दर्य को,
सहज ऐन्द्रिक सुख
हैं बस
मरुस्थल में
शाद्वल,
हम तो हैं ना
एक लम्बी
अंतर्यात्रा पर ,
हो सकते हैं वे
चन्द घड़ियों के
पड़ाव हमारे
तनिक सुस्ताने को
ना कि
मंज़िले मक़सूद हमारी...




(शाद्वल=नखलिस्तान /oasis , मंज़िले मक़सूद =अभीष्ट गंतव्य )

24/07/2012

मंदिर-मस्जिद क्यूँ जाऊं...!


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रातरानी की
मादक महक
हो तुम ..
शाखों की
चंचल लहक
हो तुम ..

हो सितारों की
जगमगाहट..
पत्तियों की तुम
सरसराहट ..

मनमोहिनी रंगत
फूलों की ...
मीठी सी चुभन हो
शूलों की ..

हरी दूब की
कोमलता
बरखा बूंदों की
शीतलता ...

मृग की
मासूम आँखों में
मोर की
सतरंगी पांखों में ...

हो कोयल के
गान में तुम
प्रीत की मधुरिम
तान में तुम ...

नज़र मैं डालूँ
जहाँ जहाँ
मिल जाते हो तुम
वहां वहां ...

सब कुछ में तुमको मैं पाऊं
मंदिर-मस्जिद क्यूँ जाऊं !


रविवार, 19 अगस्त 2012

शब्द नहीं मैं मौन हूँ....

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बूझ रही हूँ
परे देह से.
आख़िर को
मैं कौन हूँ
शब्द नहीं ,
मैं मौन हूँ ...!


जुड़े थे कितने
नाते रिश्ते
जीवन के
हर मोड़ पर ,
कुछ तो
संग चले थोड़ा ,
कुछ जुदा हो गए
छोड़ कर
मेरा निज
ढूंढें उनमें
मैं कहाँ छुपी ,
मैं कौन हूँ
शब्द नहीं ,
मैं मौन हूँ !!


जीवन के
रंग -मंच पर
जिये पात्र
कितने सारे
कहीं लगा कि
जीत गए हम
कभी लगा
खुद से हारे,
सत्व छुआ
जिस पल
निज का
एहसास हुआ
मैं कौन हूँ ..
शब्द नहीं
मैं मौन हूँ ...



रविवार, 12 अगस्त 2012

बीज शब्दों के..


# # #
होते हैं
कुछ और ही
निहित अर्थ
अभिव्यक्ति के ,
बोते हैं
जब जब
बीज हम
शब्दों के...


जब हो कर
घटित
किसी रचना में
लहलहाती है
फसल शब्दों की
काटता है
हर पाठक
उसे मानो
अपने अर्थों की
दरांती से ....

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

जगती आँखें....

छू कर
तेरा मन
ओ साजन !
हृदय को मेरे
मिलती पांखें ,
साथ हमारा
नहीं है सपना
मुंदी हुई हैं
जगती आँखें ....


शब्द जाल का
नहीं है बंधन ,
प्रतिबद्ध भाव
अनुभूति है ,
गहन प्रेम
मुखर कभी तो
कभी
मौन अभिव्यक्ति है ....


हार गए हम
अपने 'मैं' को ,
जीत की
ना अब
कोई चाहत
'तुम' 'मैं' का
हर भेद मिट चुका
'हम' हो कर
है पाई राहत ...


पतझड़ बीता
कोंपल फूटी
पुष्प श्रृंगारित
हैं सब शाखें ,
साथ हमारा
नहीं है सपना
मुंदी हुई हैं
जगती आँखें...