बुधवार, 7 सितंबर 2011

सर-ए-महफिल मेरी दीवानगी यूँ बेज़ुबां रख दी (तरही गज़ल )


मिसरा -ज़रा सी चीज़ घबराहट में ना जाने कहाँ रख दी -आरज़ू लखनवी
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नज़र की ताब अपनी ,मैंने सू-ए-आसमां रख दी
छुपा कर अब्र में लेकिन ,किसी ने आंधियाँ रख दीं

छुपाया ख़्वाब जो जग से ,उसे फिर जी नहीं पाए
ज़रा सी चीज़ घबराहट में ना जाने कहाँ रख दी

पलों का साथ मिलना ,साथ बहना फिर जुदा होना
खुदा ने क्यूँ सफ़र में मेरे , बस तन्हाइयां रख दीं

हिलाए न थे तुमने लब , न मैंने ही ज़ुबां खोली
घुटन न जाने किन लफ्ज़ों ने अपने दरमियाँ रख दी!

लगाये फूल बगिया में , था अश्कों से उन्हें सींचा
खिज़ा ,लेकिन मेरी किस्मत ने ,मेरे गुलसितां रख दी

इशारों ही इशारों में ,बयाँ  कर डाला हाल-ए-दिल
सर-ए-महफिल मेरी दीवानगी यूँ बेज़ुबां रख दी

6 टिप्‍पणियां:

  1. न तुमने लब हिलाए और न मैंने ज़ुबां खोली
    घुटन फिर भी ,ये किन लफ्ज़ों ने अपने दरमियाँ रख दी

    वाह...बहुत खूब...लेकिन कुछ मिसरों में आपने बहु वचन के साथ भी "दी" रदीफ़ का प्रयोग किया है जैसे आंधियां रख दी, जबकि आंधियां रख दीं होना चाहिए था...इसी तरह तनहाइयाँ रख दी की जगह तन्हैयाँ रख दीं...इसे ठीक कर लें.

    नीरज

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  2. नीरज जी

    आपका आभार त्रुटि की ओर ध्यान दिलाने के लिए

    मैंने ठीक कर दिया है आपके कहे अनुसार

    शुक्रिया

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  3. न तुमने लब हिलाए और न मैंने ज़ुबां खोली
    घुटन फिर भी ,ये किन लफ्ज़ों ने अपने दरमियाँ रख दी
    लाजवाब शेर!!बहुत ही सुन्दर गज़ल..!!

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  4. इशारों ही इशारों में ,बयाँ दिल हाल कर डाला
    सर-ए-महफिल मेरी दीवानगी यूँ बेज़ुबां रख दी

    बहुत उम्दा गजल...बहुत गहरे भाव!

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  5. न तुमने लब हिलाए और न मैंने ज़ुबां खोली
    घुटन फिर भी ,ये किन लफ्ज़ों ने अपने दरमियाँ रख दी

    गज़ब के भाव भरे हैं ………शानदार गज़ल्।

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  6. इशारों ही इशारों में ,बयाँ कर डाला हाल-ए-दिल
    सर-ए-महफिल मेरी दीवानगी यूँ बेज़ुबां रख दी

    बेहतरीन प्रस्तुति,मुदिता जी.
    प्रशंसा के लिए शब्द नहीं हैं मेरे पास

    आप मेरा अनुग्रह स्वीकार कर मेरे
    ब्लॉग पर आयीं,इसके लिए आभार.

    आप पुनः आईयेगा,प्लीज.
    आपका सुन्दर विश्लेशण मेरा
    मार्ग दर्शक है.

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