शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

स्वीकृति-समग्रता की


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स्वीकारें हम
'स्वयं ' को,
बिना किसी
मूल्यांकन के ..
स्वीकारें
हर वृति को
स्वयं की
जो दिखती है
अन्यों में
हमें
एक दोष की तरह ....

हूँ मैं स्वार्थी
उतनी ही
जितना हो सकता है
कोई भी दूसरा
अनुसार मेरे ..
है क्रोध
मुझमें भी
वैसा ही
दिखता है जैसा
अन्यों में भी मुझको ...

नकारना
इन विषय-वासनाओं को
नहीं दिला सकता
मुझे मुक्ति इनसे
अपितु
जमा लेती हैं ये
गहरे अवचेतन में
अपनी जड़ें
करने से
दमन इनका ...

उपचार
होता है संभव
रोग का
मात्र
उसके निदान के
पश्चात् ...
आ जाती हैं
परिधि पर
ये विषय वासनाएं
मिलते ही स्वीकृति
मेरे स्वयं की ..

नहीं होती हूँ
प्रभावित इनसे मैं
होने के बाद
बोध इनका
और
हो जाता है संभव
विसर्जन
तत्पश्चात इनका
सहजता से ...

स्वीकृति
समग्रता की ही
दिला सकती है
मुक्ति हमें
नकारात्मकता से
जिससे
जी सकें हम
एक
सरल ,
सहज
और
सकारात्मक
जीवन
बढते हुए
मंजिल की तरफ ......



12 टिप्‍पणियां:

  1. स्वीकारें हम
    'स्वयं ' को,
    बिना किसी
    मूल्यांकन के ..
    स्वीकारें
    हर वृति को
    स्वयं की
    जो दिखती है
    अन्यों में
    हमें
    एक दोष की तरह ....
    first step ..and the most important one ....!!
    beautiful expression ..!!

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  2. हर वृति को
    स्वयं की
    जो दिखती है
    अन्यों में
    हमें
    एक दोष की तरह ....


    सार्थक भाव ...सुन्दर अभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर भाव और जीवन को प्रेरणा देती पंक्तियाँ !

    जवाब देंहटाएं
  4. 'स्वीकृति

    समग्रता की ही

    दिला सकती है

    मुक्ति हमें

    नकारात्मकता से'

    *******************

    चिंतनपरक भावों की प्रवाहमयी सुन्दर रचना

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  5. बहुत सुन्दर....बहुत गहन.......कबीर का एक दोहा याद आ गया इस पोस्ट पर.....बुरा जो देखन मैं चला ......

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  6. गहन चिन्तन का परिणाम है ये पोस्ट्…………॥
    बुरा जो देखन मै चला बुरा ना मिलया कोय
    जो मन खोजा आपना मुझसे बुरा ना कोय

    बस ये जीवन मे उतारने के बाद ही समग्रता का प्रवेश होता है।

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  7. अपने आप का मूल्यांकन ही तो सबसे दुरूह होता है ......अपनी कमियां लोगों को कहाँ दिखलाई पड़ती हैं.......आपकी ये कविता प्रथम सोपान प्रतीत होती है .

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  8. Mudita jee,kitni sahajata se aap sundar baat ko samjha deti hain...badhai...

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  9. ये सच है की हम खुद ही आपमो तुलना दूसरों से कर के खुद को हीन समझने लगते हैं ...
    सार्थक रचना है ....

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