शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

चने का झाड़ ...


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ज़मीन पर
रेंगते
असमर्थ
प्राणियों को
देने
तथाकथित
आत्मविश्वास
चढ़ा देते हैं
कई शुभेच्छु
दे कर सहारा
चने के झाड़ पर .....

पाते ही सहारा
अदना से झाड़ का
हो जाता है
निर्बल जीव
अहम् पोषित
भूल कर औकात
अपनी......

महिमामंडित
करता है
स्वयं को
ले कर ऊंचाई
उस
तथाकथित झाड़ की...


अचानक !!
हल्का सा
कोई झोंका
हिला कर
झाड़ को
गिरा देता है
उस
परावलम्बी
जीव को
मुंह के बल
ज़मीन पर...

फिर
रेंगते हुए
शुरू होती है
खोज ,
किसी नए झाड़
और
झाड़ पर
चढ़ाने वाले
नए
शुभेच्छुओं की...






4 टिप्‍पणियां:

  1. ठीक बात है -
    सम रहने में ही भलाई है -
    सुंदर रचना -
    बधाई.

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  2. आपकी कलम से बहुत खूबसूरत कविताएँ जन्म लेती हैं.

    ........और हाँ, चने के झाड़ पर नहीं चढ़ा रहा.

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  3. nayi khoj...........



    oh!!

    jaari hai ab tak shaayad!

    sach me bada mushqil hota hai PARJEEVI bane rahna!

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