शनिवार, 11 दिसंबर 2010

अक्स...


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क्यूँ  हैं हम
मुखौटों के
प्रतिबिबों के बीच
धुंधलाते
आईने में
चेहरा अपना ....
धुल कर
आंसुओं से
होगा जब साफ़
आईना दिल का
दिखेगा तभी
मुस्कुराता हुआ
अक्स भी खुद का....


7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही जोरदार अक्स दिखा दिया वाह ...

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  2. आंसुओं से तेरे
    होगा जब साफ़
    आईना दिल का
    दिखेगा तभी
    मुस्कुराता हुआ
    अक्स भी खुद का...

    बिलकुल सच....बढ़िया अभिव्यक्ति

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  3. दिल का आईना साफ़ होना ही तो
    महत्वपूर्ण है ....
    मन का धुंधलका छंट ही जाना चाहिए

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  4. मुदिता जी,
    आज एक लम्बे अरसे के बाद आ सका हूँ आपके ब्लॉग पर दस्तक देने...आपके सृजन-लोक में झाँकने...आपके धैर्य को नमन्‌!

    सही रास्ता ही तो बताया है आपने... दर्पण में साफ़-सुस्पष्ट-उज्ज्वल-धवलकान्त प्रतिबिम्ब यानी ‘अक्स’ उतारने का!

    जब तक चेहरे पर मुखौटा है, तब तक असली ‘अक्स’ कहाँ से उभर सकेगा? और यदि दर्पण भी धुँधला हो, तब तो और भी अस्पष्टता आनी ही आनी है!

    मैं भी यह मानता हूँ कि व्यक्ति को समय-समय पर अपने ‘दिल का दर्पण’ साफ़ करते रहना चाहिए...ज़रूरी है...बहुत ज़रूरी!

    यदि मैं इस रचना का सही संदर्भ/प्रसंग समझ सका हूँ, तो फिर दावे के साथ कह सकता हूँ कि इसकी जन्म-तिथि कोई बहुत पहले की नहीं ही होनी चाहिए...है न?

    ‘मुखौटा’ विषय पर एक मुक्तक याद आ गया, उद्धृत कर रहा हूँ-

    "या तो किरदार मार दो अपना।
    या मुखौटा उतार दो अपना।
    तुम तो पल-पल पे रंग बदलते हो,
    यार! चेहरा उधार दो अपना॥"

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  5. अश्क देखना कठिन कार्य है ...स्वयं का ..सुन्दर रचना .

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