गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

सरमाया-ज़िंदगी का

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चांदनी रात में
नदी किनारे बैठे
मैं और तुम
निशब्द
लिए हाथों में हाथ
एकटक देखते हुए
लहरों पर
उतर आये
सितारों को
जिनकी चमक
है नज़रों में
हमारी ...
बहता है
मध्य हमारे
बस
मुखरित मौन
जिसकी संगति
दे रहा है संगीत
नदी की
कल कल का ...
यही लम्हे
सरमाया है
ज़िंदगी का मेरी
जब मैं बस 'मैं 'हूँ
तुम बस 'तुम ' हो
न मैं 'मैं हूँ
न तुम 'तुम' हो
दुनिया से
पृथक
दो अस्तित्व
हो उठे हैं
एकाकार
उस विराट में
खो कर
स्वयं को




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