मंगलवार, 30 नवंबर 2010

सरगोशी.....

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रात की
ख़ामोशी में,
जगती
मेरी
तन्हाइयाँ...
बंद पलकों में
सिमटती ,
अनगिनत
परछाइयाँ ...
उन पलों में ,
नर्म सरगोशी
तेरी आवाज़ की...
छेड़ देती
जैसे
रग रग में मेरी
शहनाइयाँ .....



2 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद अच्छी और रूमानी रचना के लिए ढेरों बधाइयाँ स्वीकार करें...शब्दों से कल्पना का अद्भुत संसार रच दिया है आपने...वाह...

    नीरज

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