बुधवार, 13 अक्टूबर 2010

'कोयला' भये ना 'राख'


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सालों से
बक्से में
बंद
पीले पड़ चुके
कागजों पर
कभी
उकेरे गए
तुम्हारे एहसास
आज
वक़्त की
धूल झाड़
बिखर गए
क्वार की
नर्म धूप से
मेरे आँगन में....
कांपती उँगलियों से
छुआ
तो
नमी
कुछ
अनबुझे
लफ़्ज़ों की
उतर आई
पलकों पर
मेरी ...
सुलगते अरमान
अधबुने सपने
सुनहरे दिन
रुपहली रातें
सब इतरा रहे हैं
आज
मन के
विस्मृत
कोने में
सांस लेते हुए....
फूँक दो
अपनी साँसों की
आंच से
इन अधबुझे
नम शोलों को
वरना
ये भी
शिकायत कर बैठेंगे
कि
ना ये
'कोयला'
हुए ना
'राख '



6 टिप्‍पणियां:

  1. फूँक दो
    अपनी साँसों की
    आंच से
    इन अधबुझे
    नम शोलों को
    वरना
    ये भी
    शिकायत कर बैठेंगे..

    बहुत सुन्दर भाव ...लगता है रंगाई पुताई पूरी हुई ...उन्ही में मिले होंगे पीले कागज़ :):)

    जवाब देंहटाएं
  2. vatvriksh ke liye yah rachna bhejen rasprabha@gmail.com per parichay aur tasweer ke saath

    जवाब देंहटाएं
  3. मुदिता जी,नमस्कार.
    बटवृक्ष पर आपकी रचना"कोयला भये न राख" पढ़ी थी.अत्यंत संवेदनशील रचना लगी.पढ़कर मजा आ गया .मैं स्वयं को रोक नहीं पाया और इसका अनुवाद करने का सहस कर बैठा.दीदी कि भूमिका भी पराभवी थी सो उसका भी अनुवाद कर बैठा.आपको भेज रहा हूँ.अपने विचार से अवगत करायेंगी इस उम्मीद के साथ.अपने इस दुस्साहस के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ,

    Translation ऑफ़ "वक्त हो तो बैठो" "'कोयला ' भये ना 'राख'"


    वक्त हो तो बैठो
    वक्त हो तो बैठो
    दिल की बात करूँ....
    कुछ नमी हो आंखों में
    तो दिल की बात करूँ...
    तुम क्या जानो,
    अरसा बीता,
    दिल की कोई बात नहीं की,
    कहाँ से टूटा
    कितना टूटा-
    किसी को ना बतला पाई,
    रिश्तों के संकुचित जाल में
    दिल की धड़कनें गुम हो गईं !
    पैसों की लम्बी रेस में
    सारे चेहरे बदल गए हैं
    दिल की कोई जगह नहीं है
    एक बेमानी चीज है ये !
    पर मैंने हार नहीं मानी है
    दिल की खोज अब भी जारी है....
    वक्त है गर तो बैठो पास
    सुनो धड़कनें दिल की
    इसमें धुन है बचपन की
    जो थामता है -रिश्तों का दामन
    फिर.............
    वक्त हो तो बैठो,
    दिल की कोई बात करूँ............

    रश्मि प्रभा





    IF HAVE TIME
    If have time
    Let us sit toghther
    And talk.
    If have something inside ,
    Let it come out.

    It was long back
    When we shared our mind.
    What went wrong
    When and from where
    I couldn't say anyone.

    I got so engaged
    In life's mortal relationships
    That I become a fish in the net.
    I couldn't find myself,
    I couldn't hear my soul,
    I got totally lost.

    ,

    When money
    Took the centre stage,
    The face of the world changed,
    Love turned meaningless,
    Deliberately kept behind.

    But I havn't left the ground,
    I am still searching
    The thread that unites,
    person to person,
    person to soul.

    And listen to my heart
    Where lies my childhood,
    My dreams,my ties
    With nature and others.

    Let us sit together
    Once again
    For a while
    And listen to the music of life
    .


    'कोयला ' भये ना 'राख'


    सालों से
    बक्से में
    बंद
    पीले पड़ चुके
    कागजों पर
    कभी
    उकेरे गए
    तुम्हारे एहसास
    आज
    वक़्त की
    धूल झाड़
    बिखर गए
    क्वार की
    नर्म धूप से
    मेरे आँगन में....

    कांपती उँगलियों से
    छुआ
    तो
    नमी
    कुछ
    अनबुझे
    लफ़्ज़ों की
    उतर आई
    पलकों पर
    मेरी ...

    सुलगते अरमान
    अधबुने सपने
    सुनहरे दिन
    रुपहली रातें
    सब इतरा रहे हैं
    आज
    मन के
    विस्मृत
    कोने में
    सांस लेते हुए....

    फूँक दो
    अपनी साँसों की
    आंच से
    इन अधबुझे
    नम शोलों को
    वरना
    ये भी
    शिकायत कर बैठेंगे
    कि
    ना ये
    'कोयला'
    हुए ना
    'राख
    (मुदिता गर्ग)

    No Result(Inconclusive)

    Years have gone
    Pages of letters
    Kept in the dark corner of a box
    Have turned brown
    Upon which you wrote once
    Your heart and mind.

    It has come out today
    Out of the dust of time
    And got scattered
    All around
    Like the soft rays
    Of winter sun
    In my courtyard .

    With trembling hand
    When I touched the warmth
    Of some of its unexplained words
    My "self" was overwhelmed
    My eyes full of tears.

    My burning desires,
    Half woven dreams,
    Golden days,
    Silvery nights are proud
    To be breathing today
    In the forgotten corners of conscience.

    Let us burn
    Those half burnt
    Moist logs of desires
    With the fire within.
    Otherwise, they'll complain
    They were left undone.

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  4. राजीव जी
    बहुत बहुत शुक्रिया इस सम्मान का.....आपके इस कृतित्व से महसूस हो रहा है कविता ने आपके दिल को छुआ...और आपने उन भावों को गहरायी से महसूस करके उनको शब्द दिए.....मैं आभारी हूँ इस संवेदनशीलता के लिए..बहुत बहुत धन्यवाद

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