शनिवार, 19 सितंबर 2009

जज्बा-ए-सफ़र

हवाओं के तेवर से  हो  बेखबर
जलाऊं शमा मैं हर इक रहगुज़र

गिला कोई नहीं ,ना है जो  हाथ हाथों में
मेरे जज्बों में शामिल है तेरा जज़्बा-ए-सफ़र

अँधेरे रात के अब कैसे भटका पायेंगे मुझको
बनी है हिम्मत-ए-रूह मेरे हिस्से की सहर

इश्क बेलफ्ज़ बहता है दिलों के दरमियाँ 
गुफ़्तगू करती है , तेरी नज़र मेरी नज़र

छुपा  सकते नहीं  जज़्बात  दिल के हमनवा
निगाहें सुन ही लेती हैं बयां को  इस कदर

फ़ना हो जाता है वो शख्स, रहे जो बेख्याली में
होशमंदों पे होता है  मोहब्बत का अलहदा असर.

5 टिप्‍पणियां:

  1. गिला कोई नहीं ,ना है जो हाथ हाथों में
    मेरे जज्बों में शामिल है तेरा जज़्बा-ए-सफ़र

    बहुत ही बढ़िया ।

    सादर

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  2. बेहतरीन गजल ..शुभकामनायें !!!

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