रविवार, 24 मई 2009

खुद को

नज़र रही मशरे पर ना अपनाया खुद को
इसी जद्दो-ज़हद में बिसराया खुद को

खुश रखने की चाहत में हर गैरोसनम को
निगाहों से कई बार गिराया खुद को

नज़र पड़ी रूह-ए-खुदा पर तो जाना
बेकार ही यहाँ वहाँ ढूँढा किया खुद को

बीते हर लम्हा अब तेरी बंदगी में
पेश्तर तुझे पाने के ,अपनाया खुद को

दरिया-ए-मस्सरत का लुत्फ़ क्या कहिये
डूब के इस धारे में ,बहाया खुद को

ए मेरे मलिक कर दे इस लायक मुझे
बाँट भी पाऊं जो आज पाया खुद को

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें