रविवार, 24 मई 2009

बंजर धरा

बंजर सी धरती पे
क्यूँ बरसाए नेह का सावन
कठोर है धरा
बीज तक ना पंहुचेगा तेरा आवाहान

प्रेम के हल से करी जुताई
बीज धरा में तूने बोया
नम अँखियों से सींचा उसको
व्यर्थ प्रतीक्षा में ना सोया

देख धरा पे कुछ त्रिन हैं
स्वतः ही जनम हुआ है उनका
सहज स्वाभाविक अवसर पा कर
उदगम नैसर्गिक हुआ है उनका

ना शोक मना तू बांझ धरा का
तूने करम किया स्व पूरा
जितना मिलना लिखा भाग्य में
वो नहीं मिलेगा कभी अधूरा

ले आनंद उन्ही त्रिनो का
कन कन प्रतिकन ही तो जीवन है
हर क्षण को सींच प्रेम अँसुअन से
यही मनुष्य सार्थक जीवन है

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें