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बरसा आकाश अपने आप
भीगी धरती अपने आप
ज्यूँ तुम थे बरसे
और मैं थी भीगी ....
बूँद ठहरी अपने आप
सहेजा पात ने अपने आप
ज्यूँ तुम ने सहेजा
और मैं थी ठहरी ...
चमका सूरज अपने आप
वाष्पित हुई बूँद अपने आप
ज्यूँ नियति का खेला
और हम थे बिछड़े ....
फिर बरसेगा बादल
अपने आप
फिर ठहरेगी बूँद
अपने आप
होता रहेगा
मिलन बिछोड़ा
अपने आप .....
सब कुछ होता रहता अपने आप , फिर भी हम सोचते कि ये हमने किया । बहुत सुंदर भाव प्रणव रचना ।
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