सोमवार, 1 अगस्त 2022

कर्ज़...



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न जाने 

कितने जन्मों का 

उठाये हुए कर्ज़ 

रूह पर अपनी 

चली आती हूँ 

बार बार 

चुकाने उसको 

लेकिन 

चुकता नहीं 

पुराना कर्ज़ 

और करती जाती हूँ 

उधारी ,

ज़िन्दगी  जीते जीते 

भावों के आदान प्रदान में ...


जुड़ जाता है 

क्रोध 

वैमनस्य 

निराशा 

हताशा 

अपेक्षा 

कामना 

वासना

ईर्ष्या

प्रतिस्पर्धा  

अनदेखे 

अनजानों के साथ भी 


बाँध के गठरी 

इतने बोझ की 

जा नहीं सकती 

दुनिया के 

चक्रव्यूह से परे 


हे माँ शक्ति ! 

कर सक्षम मुझको 

हो पाऊं साक्षी 

करने को विसर्जन 

इस गठरी का 

और चुका सकूँ 

कर्ज़ अपना 

हो कर प्रेम 

समस्त 

अस्तित्व में ,

अश्रु पूरित  नैनों से 

है बस यही 

करबद्ध प्रार्थना 

तुझसे ......

14 टिप्‍पणियां:

  1. जब गठरी का एहसास हो गया तो विसर्जित भी हो जाएगी । किसी न किसी जन्म में रूह को मोक्ष भी मिल ही जायेगा । स्वयम का आकलन करती विचारणीय रचना ।

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  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (2-8-22} को "रक्षाबंधन पर सैनिक भाईयों के नाम एक पाती"(चर्चा अंक--4509)
    पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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    कामिनी सिन्हा

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    उत्तर
    1. धन्यवाद कामिनी जी ,अवश्य आउंगी मेरी रचना को शामिल करने के लिए आभार 🙏

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  3. बहुत बहुत आभार यशोदा आपका 🙏🙏

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  4. शुभ प्रभात !
    ईश्वर करें आपकी मनोकामना जल्द पूरी हो !
    सुन्दर अति सुदर रचना |

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  5. बेहद खूबसूरत रचना...इसी कर्ज़ को चुकाने हम आते हैं धरा पर बार-बार...वाह-वाह...👏👏👏

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  6. सुंदर और करणीय प्रार्थना

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  7. संसार से मुक्ति की चाह लिए सुंदर सृजन।

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  8. कर्ज चुकाने आये और ंर भी उधारी लेकर जाते है फिर आवागमन का सिलसिला चलता ही रहता है।
    बहुत सुन्दर सृजन।

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