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सुर तेरे
जो सज न सके
गीत मेरे
जो रच न सके
बिखरे बिखरे
जीवन प्रांगण में
इस मन के
सूने आंगन में...
छेड़ तान तू
साज़े दिल पर
ऐसी कोई
कम्पन पा कर
जग जाएं आखर
छलक उठे हृदय पात्र से
प्रीत जो सोई खोई...
हो तरंगित
अनाहत अपना
रूह छेड़े
फिर राग भी अपना,
विलग ना हों फिर
मैं और तुम
हम में सब
हो जाए गुम...
वही तरंगे हों
प्रसारित
ऊर्जा अपनी हो
विस्तारित
कण कण थिरकन
प्रेम की हो
नहीं भावना
भरम की हो...
सार्थक हो फिर
साथ ये अपना
सच हो
सुंदर धरा का सपना
सज जाएं फिर
सुर तेरे भी
रच जाएं फिर
गीत मेरे भी...
पूरन हो
मधुर मिलन की रीत
खिल जाए
फिर अपनी प्रीत
तेरे सुर और मेरे गीत
दोनों मिल बन जाएं मीत ...!!!
सुर और गीत रचते रहें बसते रहें।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति ।
बहुत सुंदर रचना।
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