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एक सुकोमल छुअन
अनदेखी अनजानी सी
रूह की गहराइयों में
लगती कुछ पहचानी सी
पिघला रही है वजूद मेरा
हो गयी सरस तरल मैं....
यह पहचान स्व-सत्व की
आह्लादित मुझको किये है
गिर गए मिथ्या आवरण
जो सच समझ अब तक जिये है
कुंदन करने तपा के निज को
हो गयी पावन अनल मैं....
पुष्प खिल उठा अंतस में
हुआ सु-रंग मेरा अस्तित्व
रौं रौं में सुवास प्रसरित
नहीं किंचित अन्य का कृतित्व
निःसंग हो पंक प्रत्येक से
हो गयी ब्रह्म कमल मैं....
प्रस्फुटित है हास्य निश्छल
स्वयं से और गात से
पल प्रति पल रहती प्रफुल्लित
बात या बिन बात के
उलझावों से मिली है मुक्ति
हो गयी सहज सरल मैं....
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 30 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद मुझे शामिल करने के लिए
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंआभार 🙏🙏
हटाएंबहुत सुंदर अनुभूति
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद अनिता जी 🙏🙏
हटाएंबहुत शुक्रिया 💐💐
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