धुंध में घिरा,
विचारों के
उलझे धागों में
फंसा मन
शब्दों का ही नहीं
मौन का भी
अर्थ-अनर्थ
कर बैठता है ...
विचारों के
उलझे धागों में
फंसा मन
शब्दों का ही नहीं
मौन का भी
अर्थ-अनर्थ
कर बैठता है ...
मौन को सुनने
होना होता है मौन ही
उतरना होता है
अंतरंग में
विस्मृत कर
बहिरंग को,
होता है घटित
सहज सा ध्यान
और हो जाता है
स्वत: ही
समन्वय और संतुलन
शब्द और मौन का,
क्रिया और प्रतिक्रिया का,
अंतरंग और बहिरंग का...
और हो पाती है
अनुभूति
द्वैत के मिथ्यात्व की
अद्वैत के अस्तित्व की..
होना होता है मौन ही
उतरना होता है
अंतरंग में
विस्मृत कर
बहिरंग को,
होता है घटित
सहज सा ध्यान
और हो जाता है
स्वत: ही
समन्वय और संतुलन
शब्द और मौन का,
क्रिया और प्रतिक्रिया का,
अंतरंग और बहिरंग का...
और हो पाती है
अनुभूति
द्वैत के मिथ्यात्व की
अद्वैत के अस्तित्व की..
मौन को स्वयं ही खोजने होते है अपने और सरत्य के मायने ...
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