सोमवार, 19 नवंबर 2012

कैसी है यह भोर...


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बूटे बन कर
जौहरी,
लिए मोती
अपने
पत्तों सी
हथेलियों पर,
देखो आ खड़े हैं
बाजार में
लगाए अपनी
व्याकुल दृष्टि
उसकी चंचल
सहेलियों पर..

कैसी है
यह भोर
डोल रही है
साँसे
बन कर
तेज हवा का
झोंका,
प्राणों का
विश्वास
डगमगाया
किसको
ऐसा मिल गया
मौका ......

कैसे जाने
कोई,
जमना तट पर
बज रही
बंसी
कान्हा की
सुनकर
खोल रही
वातायन
पीड़ा
राधा की .....

अरे ! ये रजनी
क्यों बहा रही है
आंसू
लेकर
मेघों की झीनी
ओट,
साजन
तुम क्यूँ चले ना आये
सहलाने
अपनी प्रिया की
चोट....


गुरुवार, 8 नवंबर 2012

जब जब अपनाता कोई और....



आसमान
पाताल
औ'
पर्वत
ओस
तुषार हो
या फिर
बादल
जल
बस
होता है
केवल जल ....

कभी वो
बनता
बहता दरिया ,
बने कभी
एक शांत
सरोवर,
झील गहन
कभी
कूप रूप कभी
है असीम
कभी एक सागर..

पा लेता
लघु और लघुतम
आकार
घट या सुराही में
कभी चसक,
कभी प्याला
हो कर ,
दिखता
दूजी एक परछाई में ....

अमृत में जल
जल हाला में
भिन्न नहीं
निहितार्थ,
आकार-प्रकार तो
निर्भर करता
हो जैसा
पात्र-पदार्थ

जल बस
होता है
केवल जल
अलग अलग
होते हैं ठौर,
काल -परिस्थिति की
भिन्नता में
जब जब
अपनाता
कोई और ....

बुधवार, 7 नवंबर 2012

कहाँ है दूरी....

पल पल साथ
कहाँ है दूरी
विदा हुए
कैसी मजबूरी ....!

विलय हुईं
सागर में
नदियाँ ,
विरह में
गुजरी
कितनी
सदियाँ ,
जीवन कर्म
निभाने को
वाष्पन भी
है जरूरी ...

निशा दिवस
इक साथ सदा
सीमित दृष्टि में
जुदा जुदा ,
जिस पल में
उजला दिन
दिखता
क्षण उसी में
रजनी गहरी ....

पल पल साथ
कहाँ है दूरी
विदा हुए
कैसी मजबूरी ....!

शनिवार, 3 नवंबर 2012

नयी-पुरानी जितनी गांठें .....

गांठे ,कितनी उलझी गांठें !!

मन की चादर के सब धागे
उधड़े -बिखरे सुलझे उलझे
सिरा पकड़ जब खींचूं मैं
लग जाती हैं कितनी गांठे !

कुछ प्रमाद के कारण लगतीं
कुछ न जाने लगती क्यूँ कर
सजग रहूँ यदि, दिख पाएंगी
नयी-पुरानी जितनी गांठें .....

बुनना है अपनी चादर को
गाँठ रहित समतल व कोमल
इक इक धागा पकड़ पकड़ कर
सुलझा पाऊँ मनुआ गांठें ....

गांठे , कितनी उलझी गांठें
धैर्य से मेरे सुलझी गांठें
नहीं रहेंगी , नहीं टिकेंगी
ये अधसुलझी ,कुंठित गांठें

गांठें , कितनी उलझी गांठें ..!!!