रविवार, 25 दिसंबर 2011

अस्मिता -(आशु रचना )

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करते हैं हम
ना जाने
उपद्रव कितने ,
रखने को कायम
अपनी किसी
वैयक्तिक विशेषता को ,
समझ कर उसी को
अस्तित्व अपना

हो जाते हैं
हठधर्मी ,
करने को साबित
अपने छद्म व्यक्तित्व को,
करते हैं पोषण
ओढ़े हुए आवरणों का
परोसते हुए
दिखावटी दर्शन के
तर्कों और
युक्तियों को ...

नहीं होता भरोसा
जब हमें
अपनी अस्मिता का ,
हो जाते हैं विध्वंसकारी
चेष्टा में
स्वयं को श्रेष्ठ
साबित करने की ,
हीनता से भरे हुए
अंतर्मन के साथ
देते हैं धोखा
स्वयं को ,
अन्यों को भी ....

अस्मिता तो है
स्वाभाविक गुण हमारा,
सहज ,
सकारात्मक
और
दिव्य ,
नहीं आवश्यकता
किसी चेष्टा की
साबित करने हेतु
इसको ..

जीना होता है बस
प्रदूषणमुक्त हो कर
हमें
और
होती है प्रसरित
स्वयं ही
सुगंध इसकी ...

समाज
के बनाये
नाम ,
पद ,
और
रिश्तों के
मिथ्या आवरणों को
कायम रखने की
चेष्टा में
घुटने लगता है दम
हमारी अस्मिता का
और
बढ़ता जाता है
प्रदूषण ...

बढ़ने लगती हैं दूरियां
'मैं' ,'मेरा ' के
छद्म स्वंत्रतायुक्त
व्यक्तित्व की चाह में ..
जबकि
अस्मिता नहीं है
अलगाववादी
और हठधर्मी ,
यह तो है कोमल ,
स्त्रैण,
अनाक्रमक
और ग्राही ..

आओ ना !
गिरा कर
इन अवांछनीय
आवरणों को ,
प्रकट हों हम अपने
मूल स्वरुप में ,
जहाँ हैं हम
विशुद्ध
और प्रामाणिक ,
अविभक्त
उस परम अस्तित्व से ...
यही है पहचान हमारी
यही है अस्मिता हमारी ...!!!


3 टिप्‍पणियां:

  1. कल 27/12/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  2. यह अहम हट जाए ...तो सब ठीक हो जाए .

    जवाब देंहटाएं
  3. आओ ना !
    गिरा कर
    इन अवांछनीय
    आवरणों को ,
    प्रकट हों हम अपने
    मूल स्वरुप में ,

    सार्थक रचना...
    सादर.

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