रविवार, 11 दिसंबर 2011

'अनाम '

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सुना है
बेनाम ,बेशक्ल
होती हैं रूहें ,
फिर भी
ना जाने क्यूँ
होते हैं
यादों के धुंधलके में
चंद नाम ,
चंद चेहरे
अपने अपने से..
लगता है कोई क्यूँ
जन्मों से
खुद सा
पहली ही
मुलाकात में
और गूँज जाता है
कोई अनाम
यादों की गलियों में
जैसे
दे रहा हो
सदा
दूसरे छोर पर
खड़ा हुआ ..

बाँध लेती है
ना जाने कैसे
कोई अदृश्य डोर
अप्रत्याशित सी
घटनाओं को ,
पकड़ कर सिरा जिसका
चीर कर
अंधियारे को ,
करता हुआ पार
हर दूरी को
पहुँच ही जाता है
कोई
'मीत'
अपने 'मन' की
तहों में बसे
'अनाम' तक
और चल पड़ते हैं
'मनमीत '
संग संग
जानिब-ए-मंज़िल
एक नयी सहर का
आगाज़ लिए ..




3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सही कहा,आपने रूहों के नाम नहीं होते पर तब भी क्यूँ कुछ लोग पहली बार में ही ...इतने अपने से लगने लगते हैं

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  2. बाँध लेती है
    ना जाने कैसे
    कोई अदृश्य डोर
    अप्रत्याशित सी
    घटनाओं को ,
    पकड़ कर सिरा जिसका
    चीर कर
    अंधियारे को ,
    करता हुआ पार
    हर दूरी को
    पहुँच ही जाता है
    कोई
    वह कोई लगता है अपरिचित पर होता है परिचित ही... बहुत सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति!

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