गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

कृपा सिंधु


कृपा सिंधु ....
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गीता के सातवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्‌ ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥(७-११)

मैं काम (इच्छा) और राग से रहित बलवानों का बल हूँ. हे भरतों में श्रेष्ठ (अर्जुन) सब प्राणियों में मैं धर्म के अनुकूल रहने वाली लालसा हूँ. दूसरी पंक्ति को यदि ध्यान से देखें तो भगवान ने स्पष्ट किया है कि वे धर्मविरुद्ध कामों में शुमार नहीं है. हम अज्ञानी या हम में से आसुरी वृति के लोग, अमानवीय धर्म विरुद्ध कृत्यों को भी ईश्वर की मोहर लगा कर चलने का प्रयास करते हैं.
एक पंक्ति में कहें, तो इश्वरत्व सत्य, प्रेम और करुणा है...परमात्मा कभी भी इन के विरुद्ध जो भी होता है उसमें कत्तई शामिल नहीं. ये सब निहित स्वार्थों के अपने निर्वचन हैं.

इसी भावना को ध्यान में रखते हुए एक रचना का सृजन हुआ है ..आशा है बात पहुंचेगी ...



कृपा सिंधु .....####

परमात्मा तो है
सत्य
प्रेम
और करुणा,
कैसे हो सकते हैं
वे शुमार
धर्म विपरीत
कलापों में,
ईर्ष्या ,
द्वेष
और
अहंकार में ..

दिये हैं हमें
प्रभु ने
चेतना
विवेक,
भावनाएं,
संवेदनाएं
कर सकें
जिससे हम
संपादन
सतोगुणों का,
होते हुए साक्षी
मन में उत्पन्न
हर अच्छे बुरे विचार का


आसुरी प्रवृतियां
फोड़ती है ठीकरा
अपनी
नकारात्मकता का
शीश पर
प्रभु के,
अपने हर भाव को
उन्ही का दिया
बतलाते हुए
ले कर छद्म नाम
समर्पण का ..

ले लेते हैं जान
मासूमों की
कितने ही
विवेकशून्य मानव
ज़ेहाद
या
धर्मयुद्ध के नाम पर
करते हुए दावा
खुदा का फरमान,
ईश्वर की आज्ञा
मानने का..

कैसे हो सकता है
कोई भी कृत्य ,
बिम्ब
उस ईश तत्व का,
जो हो विपरीत
शाश्वत समग्रता के !
कैसे हो सकता है
कृपा सिन्धु
असत्य
अप्रेम
और
करुणा विहीन !

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