मंगलवार, 5 अक्टूबर 2010

डिस्टेम्पर

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कितनी मेहनत से
सजाई थी
मुस्कान
चेहरे पर
अपने
पर
दिल की
दरारों से
रिसते
दर्द की
सीलन ने
उतार दीं
पपड़ियाँ
उस
ओढ़े हुए
डिस्टेम्पर की ....
परत दर परत
उतरते रंगों ने
भुला दिया है
इस
आशियाने का
मूल रंग भी
मुझको ...
ज़माने की
तपती नज़रों
और
तंज़ की
बरसात को
सहते हुए
जर्जर हुई
इसकी
दीवारों को
दरकार है
तुम्हारे
स्नेहिल स्पर्श की ...
दरारों को
भरता प्यार
और
मोहब्बत की
तपिश
सुखा देगी
सारी सीलन को ...
आओ ना !!
एहसासों की पुट्टी से
ऊबड़ खाबड़
सतह को
कर
समतल
चढा दो
अपनी
मोहब्बत का
गुलाबी रंग
इन दीवारों पर
जिससे
खिल उठे
अस्तित्व इनका
और
हो जाएँ
फिर से ये
तैयार
झेलने को
दुनियावी रिवाज़ों का हर मौसम......

2 टिप्‍पणियां:

  1. आओ ना !!
    एहसासों की पुट्टी से
    ऊबड़ खाबड़
    सतह को
    कर
    समतल
    चढा दो
    अपनी
    मोहब्बत का
    गुलाबी रंग
    इन दीवारों पर
    जिससे
    खिल उठे
    अस्तित्व इनका
    और
    हो जाएँ
    फिर से ये
    तैयार
    झेलने को
    दुनियावी रिवाज़ों का हर मौसम......
    ..
    वाह मुदिता जी वाह ! क्या बिम्ब बनाया है अपने भाव कहने के लिए बहुत खूब !

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