रविवार, 27 जून 2010

क्या समझे ..

सरे-महफ़िल रकीबों  की,उन्हें हम आशना समझे
हम उनको देखो क्या समझे थे और वो हमको क्या समझे

अयाँ  हो ही गया ,कुछ इस तरह से ,हाल भी उन पर
निगाहों से गुज़र  कर दिल के जज्बों का बयां समझे

बिखर उठे हैं हर सूं बन के खुशबू मेरी  रातों की
हमीं   नादाँ  तेरे  ख्वाबों को पलकों में निहां समझे
 
कफस  में रहते रहते हो लिए सैयाद से मानूस
रिहाई ठुकरा देने से वो हमको नातवां समझे

वफ़ा का पास न तुझको मेरी ,फिर भी ए जानम
सितम ये क्या ,रकीबों को भी अब तू बा-वफ़ा समझे

हंसी को देख  कर उनकी कहीं धोखा न खा जाना
तब्बसुम में छिपे हैं गम ,जिन्हें बस आशना समझे

मिलेंगे ख़ार भी, संग भी ,चलोगे जब मेरी जानिब
नहीं मिलते मोहब्बत के सफर में  कहकशां... समझे!!

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर लिखा है आपने।

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  3. हंसी को देख कर उनकी कहीं धोखा न खा जाना
    तब्बसुम में छिपे हैं गम ,जिन्हें बस आशना समझे
    सारे ही शेर बहुत सुन्दर है...बढ़िया ग़ज़ल

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