शनिवार, 12 जून 2010

मुख़्तसर लम्हा

बहुत शुरुआती दौर की रचना है..भावों को शब्दों में बंधना सीख रही थी.. कच्ची कच्ची सी रचना को आज थोड़ी सी आंच दे कर पकाने की कोशिश की है... जो भी कमी हो इंगित अवश्य करियेगा ...

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देख रही हूँ
अनजान राहों
से गुज़रता
लम्हों का
कारवाँ
कुछ नन्हे मुन्ने
कुछ अल्हड़
कुछ परिपक्व
और कुछ
हैं बुजुर्ग
हर लम्हा
समेटे हुए
अपने में
जीवन
है सम्पूर्ण

क्या है
इनमें वह
मुख़्तसर
लम्हा
जो मिलेगा
मुझसे
अलग हो कर
इस कारवां से
और खिल
उठूंगी मैं
उस एक
लम्हे के
मेरा होने के
एहसास से

पालूंगी पोसूँगी
जी लूँगी
उसके
बचपन में
अपना बचपन
फिर यौवन
उस लम्हे का
भिगो देगा
मेरा तन मन
होता हुआ
परिपक्व
समझा  देगा
मुझे भी
जीवन के
गूढ़ रहस्य
और तब
खुलेगा भेद
ये मुझ पर
नहीं है मेरा
कोई लम्हा..
और हैं
ये  सब
मेरे ही तो
हर लम्हे में
बसता बचपन ,
यौवन
और
परिपक्वता
मेरे  ही है

क्यूँ
जी नहीं लेती
हर उस
लम्हे को
जो गुज़र
रहा है
हँसता
मुस्कुराता
नज़रों से
छू कर मेरी ...
पाने एक
अधूरे से
लम्हे को
नादान सी
मैं
बिछुड़
जाती हूँ
उस
कारवाँ से
जिसकी
राह भी मैं
और शायद
मैं ही
मंजिल भी ...

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