शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

हमसफ़र...

चली जा रही थी
यूँही अनमनी सी
टेढ़े मेढ़े रास्तों पर
अनजान थी डगर
वीरान सा सफ़र
कि टकरा गए थे
एक मोड़ पर अचानक
मैं और तुम....
मिलते ही नज़र
हो गए बेसुध
हर शै से जैसे..
महसूस हो गया
रिश्ता एहसासों का
सत्व जीवन का
और वो धूमिल सा समां
हो उठा रंगीन
चहक उठी दिशायें
महक उठी हवाएं
नहीं रह गए अब
मैं और तुम
चल दिए 'हम '
हाथ में हाथ लिए
मंज़िल की जानिब
हमसफ़र बन कर ....

2 टिप्‍पणियां:

  1. Its amazing Humsafar ...aise he safar shuru hota hai do ajnabi doston ka ...

    Its just excellant ..

    Keep it up

    Ajeet

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  2. 'मैं' और 'तुम' 'हम' बन कर साथ चल पायें...इस से बढ़कर मानवीय उपलब्धि नहीं हो सकती...किन्तु ऐसा चलना आसान नहीं.

    बहुत उत्फ्फुल मन से लिखी प्यारी नज़्म !

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