बुधवार, 7 अक्टूबर 2009

स्वपन

एहसास तेरे
होने का प्रखर
शब्द मौन थे
भावः मुखर

चेहरे पे गिरी
जुल्फों को हटा
अधरों से
अपने अधर सटा

भर दृढ बंधन
में बाँहों के
ले चले मुझे
तुम किन राहों पे


नैनो की भाषा
मादक अधीर थी
हृदय की गति
हो रही तीव्र थी


कम्पन से
रों रों गुंजारित
प्रतिध्वनि कहीं
होती उच्चारित

बिसर गया
अस्तित्व  भी निज का
भेद मिटा हर
कण से द्विज का  

फूल से हल्का
लगता था तन
उड़ा मेघ संग 
चंचन सा मन

मदमस्त पवन
का झोंका आया
चिडियों ने
चहचहा बतलाया

देख सुनहरी
भोर की बेला
स्मित अधरों
पर है खेला

खुली जो  पलकें
पता चला ये
स्वपन था गहरा
खूब भला ये

डूब प्रेम में
दिल खोता है
स्वपन भोर का
सच होता है.....

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