बुधवार, 9 सितंबर 2009

sanrakshan

घेरा था
जाली की
बाड़ से
नन्हे से
पौधे को
ले  कर
यह
प्रयोजन ..
बन
ना
जाए
क्षुधातुर 
जंतुओं
का
बेवक्त
ही
वह
भोजन ...


देता 
है छाँव
पथिक को
वृक्ष
हुआ
सुदृढ़
ले कर
प्राकृतिक
विकास...
न हटाते
बाड़  गर 
समयानुकूल
हो कर,
रह जाता
कुंद हो
उसके
अंतस का
हर
एहसास

1 टिप्पणी:

  1. bahut hi khoobsurati se bataya hai ki jab tak hi sanrakshan ki zaroorat hoti hai tabhi tak dena chahiye..usake baad dekh bhaal to zaroori hai par badhane ke liye khula aasman bhi zaroori hai....badhai n bless u

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