रविवार, 24 मई 2009

सुनी पहाड़ ने पुकार ज़मीन की.....

सुनी पहाड़ ने पुकार ज़मीन की...
हर लम्हा उसकी हम-नशीन की

चकरा गया वो सुन के ये बातें
अपने गुरूर पे की गयी घाते
हैरान सा देखता रहा ज़मीन को
समझा था हमसाया उस हसीन को
आज वही उसको समझ ना पाई है
उसकी दृढ़ता उसे अकड़ नज़र आई है

ना सहता मैं कड़कड़ाती बिजलियाँ
तो जल गयी होती तू कभी की
तुझ से पहले घात सह कर हवा का
जान बचती है तुझपे बसने वालो सभी की

गम नहीं बदन के घुलने का मुझे
मिल के बन जाता है हस्ती वो भी ज़मीन की
और बनती है धरा फिर और सुंदर
खुश्बू होती है हवा में तेरी नमी की

एक होने का सुकून मिलता है मुझको
तूने कैसे सोचा जज़्बा-ए-गुरूर है
हूँ जुड़ा गहरा जड़ों तक मैं जो तुझसे
मेरे जीने का तो ये दिलकश सुरूर है

सूरज का ताप औ बर्फ़ीली हवायें
तुझको झुलसा ना दें ठिठूरा ना जायें
इस वजह खड़ा हूँ यूँ सीना तान कर मैं
तेरे कोमल मन को ये चटका ना जायें

आज तूने यूँ पुकारा ए हम-नशीन
बात कुछ अनकही तुझ तक पहुँची नही
तू है तो मैं हूँ,मैं हूँ तो तू है
कहाँ इसमें अकड़ और कहाँ इसमें गुरूर है

मैं हूँ जाहिल और तू ज़हीन है
इसीलिए ये रिश्ता पूरक है , हसीन है
चल साफ कर मेरे लिए तू मन ये अपना
आ मिल कर देखे सुन्दर धरा का हम सपना

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