रविवार, 24 मई 2009

मुख्तसर सा लम्हा

अनजान राहों पे खड़ी
देख रही हूँ कारवाँ
लम्हों का

कुछ नन्हे मुन्ने
कुछ अल्हड़
कुछ परिपक्व
और कुछ बुजुर्ग से
हर लम्हा अपने में पूर्ण

देख कर सोचती हूँ
कौन सा है वो
मुख्तसर सा लम्हा
जो छम से आ गिरेगा
मेरी गोद में
और खिल जाऊंगी मैं
उस एक लम्हे के
अपना होने के एहसास से

पालूंगी पोसूँगी
जी लूँगी उसके बचपन में
अपना बचपन
फिर यौवन उस लम्हे का
भिगो देगा मेरा तन मन

और फिर होगा वो परिपक्व
सिखाता हुआ मुझे
बाहर आना इन
मेरे तेरे के भावों से

क्यूँ जी नहीं लेती मैं
उन सब लम्हों को
जो गुज़र रहे हैं
हंसते मुस्कुराते हुए
मेरी नज़रों के आगे से...

उस एक मुख्तसर से लम्हे
के इंतेज़ार में
बिछुड़ जाती हूँ
उस कारवाँ से
जिसकी राह भी मैं
और शायद
मंज़िल भी मैं....

10 टिप्‍पणियां:

  1. क्यूँ जी नहीं लेती मैं
    उन सब लम्हों को
    जो गुज़र रहे हैं
    हंसते मुस्कुराते हुए
    मेरी नज़रों के आगे से...


    बहुत मासूम सवाल किया है आपने खुद से

    सुन्दर कविता

    वीनस केसरी

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  2. "उस एक मुख्तसर से लम्हे
    के इंतेज़ार में
    बिछुड़ जाती हूँ
    उस कारवाँ से
    जिसकी राह भी मैं
    और शायद
    मंज़िल भी मैं...."

    kya baat hai ..
    bahut khoob

    behad sundar abhivyakti

    meri shubhkamnayen

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  3. बहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्‍लाग जगत में स्‍वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्‍दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्‍दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्‍त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

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  4. Nice poetry on fight with Emotions, Reality and of course You.

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  5. आप की रचना प्रशंसा के योग्य है . लिखते रहिये
    चिटठा जगत मैं आप का स्वागत है

    गार्गी

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  6. चिटठा जगत मैं आप का स्वागत है । लिखते रहीये हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

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  7. मासूम अभिव्यक्ति...

    सुस्वागतम्...

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