सोमवार, 29 अक्टूबर 2018

इक नई इबारत लिखती हूँ


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दर्पण के सम्मुख जब आऊँ
इक नई इबारत लिखती हूँ
कभी किशोरी,कभी यौवना
कभी प्रौढ़ा सी मैं दिखती हूँ...

बाबुल तेरा आँगन भी
मन दर्पण में  दिख जाता है
पल भर में ही सारा बचपन
नैनन में खिल जाता है
लाडो माँ की,पिता की बुलबुल
चहक चहक सी उठती हूँ
कभी किशोरी,कभी यौवना
कभी प्रौढ़ा सी मैं दिखती हूँ...

आँखों में चंचलता गहरी
होंठों पर मुस्कान सजीली
भीगी कलियों सी कोमलता
और चाल बड़ी गर्वीली
साथ सजन का पा कर मैं
सतरंगी सपने बुनती हूँ
कभी किशोरी,कभी यौवना
कभी प्रौढ़ा सी मैं दिखती हूँ...

ऋतुएं कितनी इस जीवन की
जी ली जिस घर आँगन में
उसे संवारूँ, उसे सजाऊँ
खुशियाँ भर मन प्रांगण में
संजो प्रीत रिश्तों की मन में
खुद को अब मैं रचती हूँ
कभी किशोरी,कभी यौवना
कभी प्रौढ़ा सी मैं दिखती हूँ...

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